चोटी की पकड़–78

थानेदार साहब गर्म पड़े। कहा, "ऐसा भी होगा कि हम तुम्हारा दिल देख रहे हों और असलियत कुछ हो ही नहीं।"


"मुमकिन।" नज़ीर के स्वर में निवेदन न था।

"अच्छा तो आख़िरी बात। अगर आप नहीं माने तो आज ही आपका चालान करा दूँगा।"

नज़ीर घबराए। कहा, "हमारी बात और हमें मालूम भी न हो, क्या तमाशा है।"

"अच्छा तो आप तैयार रहिए।"

"आप भी तैयार रहिए।"

थानेदार घबराए। अज़ीज़ी से कहा, "पुलिस राज दे देती है तो उसका बल घट जाता है। काम हासिल नहीं होता। आप मान जाइएगा तो वक्त पर मीठा फल खाने को मिलेगा। नहीं माने तो हाथ मलते रह जाइएगा।"

"पर हमें मालूम कर लेना है।"

यूसुफ हार गए। कहा, "हम एक जगह गए थे, जहाँ आपका नाम हमने लिखाया है।" फिर न बताया।

"कहाँ गए थे।"

यूसुफ ने एक दूसरी जगह का नाम बताया। कहा, "सरकारी काम था।"

"आप ऐसा कहते हैं तो हमारी छाती दूनी हो जाती है। फिर?"

"फिर और कुछ नहीं। यह याद रहे कि तुम्हारे मामू के तीन लड़के हैं, यह भी लिखाया है।"

"मेरे तो मामू ही नहीं। खुदा के फ़ज़ल से अब्बा जान के सालियाँ चार थीं, साला एक भी नहीं।"

"आपको हम बचाए हुए हैं, यह आप समझे या नहीं?"

"हाँ, यह तो है।"

"और आप नहीं गए, यह भी साबित है।"

"हां, यह भी।"

"आपको जिल्लत गवारा करनी पड़ी, इसका हमको अफ़सोस है।"

नज़ीर सिर झुकाये खड़े रहे। यूसुफ गाड़ी खड़ी करके आए थे। उधर को चले। विचार में नजीर को सलाम करने की याद न रही।

गाड़ी तै करके यूसुफ बैठे। गाड़ी चली। कुछ दूर पर एक दूसरी गाड़ी किराए पर ली हुई खड़ी थी। कुछ फासले से पीछे लगी वह भी चली।

यूसुफ के चले जाने पर नज़ीर के पास वही पहला आदमी गया। बुला कर पूछा। नज़ीर ने दीन भाव से कहा कि यूसुफ की उनसे तनातनी हो गई है, उन्होंने बतलाया नहीं, जो कुछ कहा-यह-वह करके, वह थानेदार हैं, उनसे जान-पहचान है, दूर के रिश्ते में आते हैं।

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